बचपन में खेलते थे कई खेल घंटो तक दिनों तक समझ और परिणाम रहित ।
एक खेल था बोलने का और चुप कर जाने का - "गाय ,गाय का बछड़ा ,गाय गुड ....के समय होठों को भींच देते थे और भींच देते थे वह वाक्य जो प्राय: रह जाता था अधूरा "गाय गुड खाती हैं।
सही समय पर होंठ भींचने वाला जीत जाता था और दूसरे की हार जाती थी जीभ और दब जाते थे शब्द जो रह जाते थे जेहन में
और फिर दिन भर मन ही मन वही पुनरावृत्ति करने का जी चाहता ," गाय गुड ...गाय गुड...
हा ,जी ही तो चाहता था उसका
क्योंकि दबाई गई थी उसकी भावनाए और होंठ
तब तब जब जब हिलते ।
पर क्या फर्क पड़ता हैं किसी को
13 की कच्ची उम्र में ब्याह दी और 15 बरस की माँ बन गई थी होंठ भींच कर ही तो
हैरान थी देख कर घर और परिवेश बदलने पर भी जिन्दगी के खेल उसके बचपन के खेल से जुड़े थे ।
उसके फडफडाते होंठ और भावनाएँ अभी भी " गाय गुड" से आगे कहा बढ़ते थे। वही समझ ,भावनाएँ और होंठ ही उसके जीवन की दास्ताँ बनाते थे।
पगले पति ,कडवी सास और तीखी नजरों से बींधता समाज मिलकर पोषित करता उसकी भावनाओं को।
मचाता उथल- पुथल इस कदर कि वह अब चींख कर कहना चाहती थी ,"गाय गुड खाती हैं,गाय गुड खाती हैं।
मगर जाने उसके होंठो को क्या हो गया
दबी भावनाओं के साथ फैलते चले जाते और निकाल देते ऐसे शब्द जो नही कहने होते और
न ही सुनने होते किसी को
" गाय गु..खाती है ,गाय गु.. खाती हैं ।
चीखती चिल्लाती वो अब अक्सर उन महिलाओं में शामिल हो जाती हैं जिन्हें लोग "कर्कशा " कहते हैं।
बिना यह जाने उसके भी दिल के अरमान गाय के गुड से मीठे होते थे।
प्रवीणा जोशी
2 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 30 अप्रैल 2016 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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