पिछले दिनों बेटे को पहाड़े याद करवा रही थी। कई बार कंठस्थ कराने के बावजूद वह पिछला पहाड़ा भूल जाता। तभी पास में बैठे अपने पिताजी के मुख से डेढ़ा ढईया के पहाड़ों को सुन आश्चर्यचकित हुई। किस प्रकार उन्हें साठ पार हो जाने के बाद भी इतनी कठिन शब्दावली के पहाड़े याद हैं, जानना चाहा। बेटे को किसी प्रकार पहाड़े याद कराने के बाद पिताजी के पास जाकर इसका कारण पूछा, तो पता चला कि यह तो मारजा की शिक्षा प्रणाली का कमाल है। खुद भी बरसों तक शिक्षिका रही हूं। पर, यह मारजा शिक्षा प्रणाली किस प्रकार थी, यह नहीं जानती थी। जानने की उत्कंठा हुई। इसे जानने के लिए अपने ही घर में मारजा के छात्रों की घर में खोज की, और जा पहुंची अपने मामा ससुर अनिल हर्षजी के पास, जो बैंक में मैनेजर हैं। मारजा और उनकी शिक्षा प्रणाली के बारे में उन्होंने जो बताया उसे लिपिबद्ध कर रही हूं।
यूं मारजा शब्द का शाब्दिक अर्थ पता नहीं है, लेकिन अनुमानत: यह मास्टरजी से बना है। उस जमाने में मारजा की मार का डर इतना अधिक था कि बच्चे मां-बाप से अधिक अपने मास्टरजी की मार से डरते थे। ऐसे अध्यापक कहलाते थे मारजा और इनके विद्यालय पोसवाळ कहलाते थे। यह पोसवाळ पूरी तरह एक ही शिक्षक द्वारा संचालित होता था। जिसमें कक्षानुसार न होकर तीन, पांच और छह वर्ष तक की उम्र के बच्चे एक ही जगह बैठते थे। समय निश्चित और सटीक था। बच्चों का देर से आना गवारा न था। समय पर उपस्थिति ही पहली मार से बचा सकती थी। इसके बाद छोटे से बड़े कद के क्रम में बच्चों को बैठाकर पढ़ाई शुरू होती। गणित और हिन्दी पर अत्यधिक जोर दिया जाता था। गणित में भी विशेष तौर पर पहाड़े वर्बल कम्युनिकेशन से सिखाए जाते। पहाड़ों में भी सामान्य के साथ विशेष तरह के पहाड़े जैसे डेढ़, ढाई इत्यादि के पहाड़ों से गिनती शुरू होती। जिनके नाम से सवाया (1.25), डेढ़ा (1.50), ढूंचा (1.75) और ढाया (2.50) थे। इसके अलावा दो से लेकर सौ तक के पहाड़े मारजा लयबद्ध करके एक बार सुनाते और बच्चों को एक साथ पूरे दिन जोर से गाकर कंठस्थ करना होता था। चमत्कार देखिए कि जीवन के सातवें दशक तक मारजा के शिष्य उन पहाड़ों को ज्यों का त्यों बोल लेते हैं। हिन्दी में वर्णाक्षरों पर जोर दिया जाता। मात्राओं को सही तरीके से सिखाने के लिए सभी मात्राओं को बारखड़ी बनाकर एक निश्चित स्वर में एक साथ गाया जाता। जैसे क, का (आ का स्वर ऊंचा), कि, की (कि का स्वर नीचा और की का स्वर ऊंचा) होता था। क से लेकर ज्ञ तक हर अक्षर सभी व्यंजनों के साथ गाए जाते। एक ही राग में। इस प्रकार बारखड़ी याद करने पर लिखते समय बिना देखे ही सुनकर अनुमान हो जाता है कि किसी शब्द में मात्रा कौनसी लगाई जाएगी। यह अभ्यास एक बार हो जाए तो जीवन पर्यन्त हिन्दी लिखते समय मात्रा का चयन सही सही होता जाता है। अगर आधुनिक शिक्षा प्रणाली में बच्चों के लिए एक नया प्रचलन है “करके सीखों” पर आधारित, लेकिन जहां प्राथमिक स्तर की पढ़ाई की बात आती है, वहां पहाड़ों और वर्णावली के लिए आज भी शिक्षक और छात्र के बीच वर्बल कम्युनिकेशन की जरूरत दिखाई देती है।
फोटो साभार
http://www.oldindianphotos.in/2011/08/photograph-of-class-in-vernacular.html
4 comments:
दादी से सिखा तो था पर "मारजा" कहते हैं ये आज पता चला..
मारजा प्राय: प्रतिष्ठित व्यक्ति हुआ करते थे समाज में उन्हें पूरा सम्मान दिया जाता था उनकी पाठशाला में उनका ज्यादातर अनु
शासन ही हुआ करता था और बड़े बच्चों की संगत में छोटे बच्चे अपने आप ही वर्णक्षर स्वर लिपि और पहाड़े गा गा कर याद कर लेते थे लिखना उन्हें बाद में अथवा साथ ही साथ सिखाया जाता था
मार्जा माट्साब मास्साब शायद ये पर्याय शब्द हैं ........मास्टर जी के ......
दर असल पहले बच्चों को बोल -बोल कर पढाया जाता था .........हर चीज को गा गा कर बच्चे बोलते थे ........और ये कार्य रोज़ होता था ........हर कक्षा में सामूहोक गान प्रतिदिन होते थे ..........जैसे ....अ से अनार , आ से आम .........एक दहाई एक इकाई दस एक ग्यारह .........अब अब्च्चे को गिनती भी याद और इकाई -दहाई भी .........आज -कल सिर्फ लिखो -लिखो और लिखो .........लिख -लिख कर कापी भरो ...........शिक्षा प्रणाली ही ऐसी है
मारज़ा शब्द पहली बार सुना ... हाँ पहाड़े ज़रूर गा गा कर ही याद किए थे ....
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
Post a Comment