Wednesday

नया रूप रंग

मद्धम होते सितारों की छांव में

ढलते चांद ने एक बार फिर

झूठा दिलासा दिया,

कल फिर मिलेंगे तब

मेरा यही रूप और

यही रंग होगा...

मगर भोर की किरणों के

नभ में प्रवेश करते ही

उसकी अधखुली आंखों

में चांद का स्‍वरूप देखा

फिर देखा स्‍नेह से

रोटी के उस टुकड़े को

जो चंद्र सा कौर बनकर

उसके चांद से मुखड़े में

समा रहा था,

चांद को तब भी मैंने देखा

उसकी खिलखिलाती हंसी के

शाम में जब वो

मेरी गोद में आकर बैठा,

चांद तब भी मेरे सामने आया

जब वो ठोकर खाकर गिरा,

रोते हुए चेहरे को लिए

मैं देखती रही उसे दिनभर,

रात को तारों की छांव में

चुपके से मेरे आंचल में दुबककर

सोए मेरे चांद को

तब मैंने एक बार फिर देखा उसे,

और अपलक देखती रह गई....

5 comments:

M VERMA said...

चुपके से मेरे आंचल में दुबककर
सोए मेरे चांद को
तब मैंने एक बार फिर देखा उसे,
और अपलक देखती रह गई....
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लाली मेरे लाल की
जित देखू तित लाल

लाली देखन मै गई
खुद हो गई मैं लाल

shobha mishra said...

बहुत सुन्दर रचना ... आपको बहुत शुभकामनायें प्रवीण जी !

Anonymous said...

वाह - लाजवाब

manish joshi said...

बहुत अच्‍छी कविता है। अच्‍छा शब्‍द संयोजन है। 'तब मैने एक बार फिर देखा उसे, और अपलक देखती रह गई।' पंक्तियां एक रेखाचित्र खींचती है।

anita agarwal said...

है ना कितनी अजीब सी बात कि आज पहली बार तुम्हारी कोई कविता पढ़ रही हूँ... और जो पढ़ा वो बहुत पसंद आया .....संवेदनाओ से भरपूर .....